गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

ये ख़ंजर किसका है?

ये किसका है ख़ंजर, ये ख़ंजर से पूछो,
ये तेरा नहीं है, ये मेरा नहीं है।

ये मुकुल की ग़ज़ल का सिर्फ शेर नहीं, लहूलुहान शहर हैदराबाद की हक़ीक़त है। सनक के हर मौके की तरह इस बार भी ख़ून बहाने वाले ख़ंजर, ज़ख़्म खाने वालों के नहीं हैं।
दो गुट। एक का रंग हरा, दूसरे का भगवा। एक के हाथों में छुरे, दूसरे के हाथों में ख़ंजर। हरे और भगवे की जंग में इंसान का सीना चाक हो गया। ज़ख़्म लगाने वाले अब गलियों में गुम हैं। बेसुराग हैं। और हर बार की तरह उनींदी आंखों वाले हुक्मरानों ने कह दिया है कि फिक्र की बात नहीं, बलवाइयों को पकड़ लिया जाएगा।
गलियों में अब बूटों की धमक गूंज रही है और शहर, अपने ज़ख़्म चाट रहा है। समय का मरहम लगेगा तो घाव भर भी जाएंगे, लेकिन ज़ख़्मों के निशान शायद न मिट सकें। शहर की रंगत कह रही है कि अब यहां रुकैया और रुक्मिणी नज़रें मिलाते झिझकेंगी। कन्हैया अब कमरुद्दीन से ठिठोली करने की हिम्मत नहीं कर सकेगा।
नई है रवायत या डर हादसों का,
यहां कोई भी शख्स हंसता नहीं है।

वैसे हैदराबाद में जो कुछ हुआ, क्या वो अचानक हो गया? शहर के बाशिंदे बताते हैं कि इस बार महीने भर पहले जब ईद-उल-नबी मनाया गया तो हरा रंग कुछ ज्यादा ही गहरा था। इतना गहरा, कि जितना पहले कभी होता नहीं था। वो जोश था, जो पहले नहीं दिखता था। और जब हनुमान जयंती मनाई जाने लगी तो भगवा रंग भी लहक रहा था। ज़ाहिर है, शहर को बदरंग
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हैदराबाद में दंगाइयों ने सड़कों पर खूनी खेल खेला
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करने के लिए दोनों रंग पहले से ही तैयार बैठे थे। सवाल ये है कि ये क्यूं हुआ? इस सवाल का जवाब शहर की बेरौनक गलियों से उठती फुसफुसाहटें देती हैं। कानों तक पहुंचने वाली आवाज़ें बताती हैं कि ये काम सियासतदां नाम की कौम का है। ये चाहते थे कि अलग सूबे की मांग का शोर दब जाए। इसके लिए एक बड़े शोर की ज़रूरत थी, सो दंगा करवाना पड़ा।
अब जो गद्दीनशीन हैं, वो अपोज़िशन को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। अपोजिशन हुकूमत पर इल्जाम लगा रहा है और आम आदमी अमन की लाशें गिन रहा है।

रविवार, मार्च 28, 2010

किसे धोखा दे रहे हैं हुसैन?

मकबूल फिदा हुसैन को कतर बड़ा रास आ रहा है। वो वहां के गुण गाते नहीं अघा रहे। वो कहते हैं
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मकबूल फिदा हुसैन : मुगालते में हैं या दूसरों को धोखा दे रहे हैं?
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‘कतर में मैं पूरी आज़ादी का लुत्फ़ उठा रहा हूं। अब कतर ही मेरा घर है। यहां मेरी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई पाबंदी नहीं है। यहां मैं बहुत खुश हूं।’ जनाब हुसैन साहब, या तो आप मुगालते में हैं, या दूसरों को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं। अगर मेरी बात पर यकीन नहीं है तो ज़रा उठाइए अपनी कूची और बना दीजिए अल्लाह की तस्वीर। फिर देखिए, क्या होता है। जिस मुल्क की तारीफ करते आपकी जुबान नहीं थक रही है, वहां कब्र भी नसीब नहीं होगी। टुकड़े कर के समुंदर में डाल दिए जाएंगे आप। भारत में रह कर तो आपने दुर्गा, लक्ष्मी और भारत माता की अश्लील तस्वीरें खूब बनाईं। आपने ये तस्वीरें बनाई ही नहीं, इन्हें जस्टिफाई भी किया। दलील ये दी, कि नग्नता में ही कला शुद्ध रूप में उभर कर आती है। हुसैन साहब, हम भी आपके हमवतन थे (अब तो ख़ैर आप अमीर को प्यारे हो चुके हैं।), इसी नाते एक सलाह देते हैं कि कतर में बैठकर कला के शुद्ध रूप की तलाश न कीजिएगा। वहां बैठकर कहीं आपने पैगम्बर साहब की बेटी फातिमा की नंगी तस्वीर बना दी, तो ग़ज़ब हो जाएगा। जो लोग आज आपके हाथ चूम रहे हैं, वही आपके
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कला या कलंक : हुसैन ने सरस्वती की अर्द्धनग्न तस्वीर बनाई
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हाथ काट लेंगे।
हालांकि हम ये भी जानते हैं कि हुसैन साहब कि आपके साथ इस तरह का कोई वाकया पेश नहीं आने वाला। क्योंकि आपने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर तमाम प्रयोग हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरों के साथ ही किए हैं। किसी और मजहब के बारे में आप सोच भी नहीं सकते। इस्लाम के बारे में तो कतई नहीं। ये सिर्फ हम ही नहीं कह रहे, मशहूर तरक्कीपसंद लेखिका तस्लीमा नसरीन भी आपके बारे में यही सोचती हैं। तस्लीमा ने जनसत्ता में 28 फरवरी को एक लेख लिखा, उसका एक अंश देखिए - ‘मैने मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को हर जगह से खोजकर देखने की कोशिश की कि हिन्दू धर्म के अलावा
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तस्लीमा नसरीन ने हुसैन की बखिया उधेड़ी
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किसी और धर्म, खासकर अपने धर्म इस्लाम को लेकर उन्होंने कोई व्यंग्य किया है या नहीं। लेकिन देखा कि बिल्कुल नहीं किया है। बल्कि वे कैनवास पर अरबी में शब्दशः अल्लाह लिखते हैं। मैंने यह भी स्पष्ट रूप से देखा कि उनमें इस्लाम के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास है। इस्लाम के अलावा किसी दूसरे धर्म में वे विश्वास नहीं करते। हिंदुत्व के प्रति अविश्वास के चलते ही उन्होंने लक्ष्मी और सरस्वती को नंगा चित्रित किया है। क्या वे मोहम्मद को नंगा चित्रित कर सकते है। मुझे यकीन है, नहीं कर सकते।’
हुसैन साहब, मलयालम दैनिक ‘माध्यमम’ को दिए गए इंटरव्यू में आपने कहा, ‘भारत मेरी मातृभूभि है’। आप भारत को मां भी बोलते हैं और अपनी इस मां की नंगी तस्वीर भी बनाते हैं। आप अपनी मां के कैसे सपूत हैं? आप कहते हैं कि आपको तो भारत से बहुत
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वाह रे सपूत : हुसैन ने भारत को मां भी कहा, अश्लील तस्वीर भी बनाई
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प्यार है, लेकिन भारत को ही अब आपकी ज़रूरत नहीं है। अब मियां आप 94 साल के हो चुके हैं। पांव आपके कब्र में लटक रहे हैं। ये वो उम्र होती है, जब लोग अल्लाह का नाम लेते हैं, नाती-पोतों को सच बोलने की नसीहत देते हैं, लेकिन आप हैं कि सरेआम झूठ बोल रहे हैं। हुसैन साहब, याद रखिए, आपको भारत से निकाला नहीं गया। आप हिंदुस्तान को ठोकर मार कर चले गए। यहां रह कर आपने देवियों की नंगी तस्वीरें बनाईं। आप इसके जरिये दौलत में बदलने वाली शोहरत कमाना चाहते थे। मक़सद पूरा हो गया, तो वतन को अंगूठा दिखाकर कतर निकल लिए। आपकी तस्वीरों के खरीदार भी तो मोटी जेब वाले शेख ही हैं। सो तिजारत के लिए उससे बेहतर जगह क्या होगी। तस्वीरें खरीदारों के मुआफिक, पैसा आपके मुआफिक।
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भावनाओं से खिलवाड़ : हुसैन ने देवी दुर्गा की अश्लील तस्वीर बनाई
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भारत में आपके विरोधियों ने क्या किया? आपके खिलाफ कानून का सहारा ही तो लिया। आपके खिलाफ अदालत में मुकदमा ही तो किया। हुसैन साहब, अगर आपमें दम था तो आप अदालत में पेश होकर आरोपों का जवाब देते। अगर आपको लगता था कि आप सही हैं, तो अदालत में तर्क रखते। लेकिन आपमें नैतिक बल नहीं था। इसीलिए बुजदिलों की तरह भाग निकले। हुसैन साहब, आपने अपनी सफाई में कहा कि कला के जरिए किसी की भावना को ठेस पहुंचाने की आपकी नीयत कभी नहीं थी। आपने कला के जरिये सिर्फ अपनी रचनात्मकता जाहिर की है। तो जनाब, कलाकार को ही क्यों, हम तो कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको होनी चाहिए। लेकिन
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पार्वती की इस तस्वीर को कैसे जायज़ ठहराएंगे हुसैन साहब?
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एक बात बताएं, क्या आपको अल्पसंख्यक समुदाय का हिस्सा होने के चलते ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक के ग़लत इस्तेमाल की इजाज़त दे दी जानी चाहिए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ हिंदू देवियों की अश्लील तस्वीरों से ही साबित होती है?जनाब अश्लील तस्वीरों के चलते जिस वक्त आपका विरोध हो रहा था, उस वक्त बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका आपके साथ था। इनमें हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई सब शामिल थे। आपकी तमाम कारगुज़ारियों के बाद भी ये आपके समर्थन में सड़कों पर उतरे। याद रखिये कि ये सिर्फ हिंदुस्तान में ही संभव है। यहां अब भी बुद्धिजीवियों का एक तबका आपकी कारगुज़ारियों पर परदा डालने को तैयार बैठा है। ये कहता है कि भूख, बेकारी पर सोचना आपके बारे में सोचने से ज्यादा जरूरी है। ये अजंता, कोणार्क और खजुराहो का जिक्र करके आपको सही ठहराने की कोशिश करता है। लेकिन इन्हें ये नहीं मालूम कि अजंता, कोणार्क और खजुराहो में सीता, दुर्गा, सरस्वती या भारत माता के नहीं, अप्सराओं और राजकुमारियों के चित्र और मूर्तियां हैं। भूख-बेकारी बेशक बड़े मसले हैं, लेकिन जब दिल पर चोट लगती है तो उस टीस के आगे तमाम मसले बौने नज़र आते हैं।
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अभिव्यक्ति की ये कैसी आज़ादी : गणेश के सिर पर विराजित लक्ष्मी की अश्लील तस्वीर
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हुसैन साहब, इस देश में बहुसंख्यकों को सरेआम ज़लील कीजिए। उनकी भावनाओं से खुलकर खेलिए। इसके खिलाफ अगर किसी ने जुबान खोली तो आप उसे गुंडा भी कह लीजिए। कोई आपको कुछ नहीं कहेगा। इसका अनुभव तो आपको हो ही चुका है, लेकिन अगर आपने अल्पसंख्यकों की भावनाओं से खिलवाड़ की होती, तो आपका बचना मुश्किल होता। उदाहरण के तौर पर दो नमूने पेश हैं। कुछ साल पहले डेनमार्क के एक अखबार ने मुहम्मद साहब का कार्टून छापा था। दिल्ली की एक पत्रिका ने उसे साभार छापा तो पत्रिका के संपादक को जेल भेज दिया गया। दूसरा वाकया, मेघालय में बच्चों की किताब में जीज़स क्राइस्ट की तस्वीर छपी। इसमें ईसा मसीह के एक हाथ में सिगरेट और दूसरे हाथ में बीयर का डब्बा दिखाया गया। इस किताब के प्रकाशक और चित्रकार को आनन-फानन में गिरफ्तार कर लिया गया। हुसैन साहब, हम आपसे पूछते हैं कि क्या इन दोनों मामलों में की गई कार्रवाई ग़लत थी? अगर आप इन्हें सही ठहराते हैं तो फिर आप पर कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए। अगर आप इन्हें गलत ठहराते हैं तो ज़रा पैगम्बर की तस्वीर बना दीजिए।

बुधवार, मार्च 24, 2010

पाकिस्तान : तख़्तापलट की तैयारी!

पाकिस्तान में जम्हूरियत एक बार फिर ख़तरे में दिख रही है। डर है कि इतिहास दुहराते हुए फौजी बूट उसे कहीं फिर न कुचल डाले। पाकिस्तान में इन दिनों सत्ता निर्वाचित सरकार के हाथों में है। लेकिन सरकार चला रही हैं
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कयानी : बढ़ रहा है क़द
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कठपुतलियां, जिनकी डोर सेना प्रमुख अशफ़ाक परवेज़ कयानी के हाथों में है। बताते हैं कि राष्ट्रपति ज़रदारी जिन फैसलों पर मुहर लगाते हैं, वो फैसले कयानी की कलम से निकलते हैं। पाकिस्तान के जो मौजूदा हालात हैं, उनमें फैसले लिखने वाला हाथ, अगर मुहर भी अपने नाम की ही लगाना शुरू कर दे, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। सत्ता में कयानी की दखलंदाजी किस तरह बढ़ चुकी है ये इस बात से जाहिर हो जाता है कि उन्होंने 16 मार्च को रावलपिंडी के सेना मुख्यालय में मुल्क के टॉप ब्यूरोक्रेट्स की बैठक ली। पाकिस्तान के इतिहास में ये पहला मौका है, जब किसी निर्वाचित सरकार के सत्ता में रहते ऐसा हुआ हो।
थोड़ा और पीछे लौटते हैं। दो साल पहले हुए मुंबई हमलों के बाद जरदारी ने पाकिस्तान का पक्ष रखने के लिए आईएसआई के मुखिया शूजा पाशा को भारत भेजने की पेशकश की थी। लेकिन कयानी ने विरोध किया और जरदारी को फैसला वापस लेना पड़ा। इसके अलावा मुंबई हमले के बाद जब भारत ने जब विदेश सचिव स्तर की बातचीत की पेशकश की तो पाकिस्तान ने रज़ामंदी देने में लंबा वक्त लिया। बताया जाता है कि जरदारी इसके लिए कयानी की मंजूरी का इंतज़ार कर रहे थे। कयानी ने मंजूरी देने में वक्त लगाया, इसलिए जरदारी की हरी झंडी भी देर से हिली।
चुप रहकर चार कदम आगे की सोचने वाले जनरल के तौर पर मशहूर कयानी शुरू में राजनीति से दूर
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ज़रदारी-गिलानी : किचकिच में उलझे
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थे। लेकिन राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी की किचकिच ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि वो हाशिये से खुद ब खुद सेंट्रल प्वाइंट में पहुंच गए। और अब हालत ये है कि देश के तमाम अहम फैसले कयानी ले रहे हैं। कयानी की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान पहुंचने वाले विदेशी राजनेता भी उनसे मिले बिना नहीं लौटते।
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अमेरिका को भी कयानी से ही उम्मीद
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अमेरिका भी अब पाकिस्तान में कयानी को ही पावर सेंटर मान कर चल रहा है। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन पिछले दिनों जब पाकिस्तान गईं, तो उन्होंने जितना वक्त राजनेताओं के साथ गुज़ारा, उससे ज्यादा समय कयानी के साथ बिताया। कयानी पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी के साथ अमेरिका गए तो ओबामा प्रशासन उनकी खातिरदारी में कुछ ऐसा जुटा कि उसे प्रोटोकॉल की भी परवाह नहीं रही। दरअसल अमेरिका तालिबान के ख़िलाफ़ मुहिम को लेकर ज़रदारी-गिलानी से नाउम्मीद हो चुका है। उसे अब कयानी से ही उम्मीद नज़र आ रही है। पाकिस्तान में हालात कुछ ऐसे हैं कि सत्ता का समीकरण जनरल के पक्ष में हो गया है। हालांकि ये पहली बार नहीं हुआ है। वहां सत्ता पर
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अयूब खां, याहिया खां, जिया उल हक़ : बंदूक के दम पर सत्ता हथियाई
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फौज के वर्चस्व और सियासी आका से बेवफाई की रवायत रही है। आखिरी गवर्नर जनरल और पहले राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा से लेकर नवाज शरीफ तक की बात करें तो अब तक पाकिस्तान में चार बार तख्ता पलट हो चुका है। इस्कंदर मिर्जा ने सन् 1956 में सत्ता संभालने के चंद महीने बाद ही कंस्टीट्यूशन को सस्पेंड कर सरकार बर्खास्त कर दी और जनरल अयूब ख़ां को मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बना दिया था। लेकिन अयूब ख़ां ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया और खुद को फील्ड मार्शल घोषित कर दिया। अयूब खान ने सन् 1958 से 1968 तक पाकिस्तान पर हुकूमत की और फिर यहिया ख़ान को गद्दी सौंप दी।
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ज़ुल्फिकार अली भुट्टो : जिया उल हक़ पर भरोसा पड़ा भारी
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1970 में हुए आम चुनाव में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान ने जीत हासिल की। लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो को मुजीब के साथ सत्ता में भागीदारी मंजूर नहीं थी। भुट्टो ने मुजीब को नज़रबंद कराके पूर्वी पाकिस्तान में क़त्लेआम शुरू करा दिया। नतीजा ये हुआ कि 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान टूट गया और बांग्लादेश का जन्म हुआ। हारे-टूटे पाकिस्तान में ताजपोशी के बाद भुट्टो ने जिया उल हक़ को सेनाध्यक्ष बनवा दिया। पाकिस्तान में 1977 में हुए चुनाव में भुट्टो पर हेरा-फेरी का आरोप लगा तो भुट्टो ने विरोधियों को सलाखों के पीछे डाल दिया। इससे जनता का गुस्सा फूटा और पूरे देश में बवाल शुरू हो गया। मौक़ा देख कर जिया उल हक़ ख़ुद मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बन गए और भुट्टो को फांसी पर लटका दिया।
सन् 1988 में विमान हादसे में जिया उल हक़ की मौत के बाद हुए चुनाव में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की बेटी बेनज़ीर पीएम बनीं। वो किसी इस्लामी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। इसके बाद अगले 11 साल तक बेनजीर और नवाज शरीफ में सत्ता की खींचतान चलती रही। दो बार बेनजीर प्रधानमंत्री बनीं तो दो बार कुर्सी नवाज शरीफ के हिस्से में आई। नवाज
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परवेज मुशर्रफ : नवाज शरीफ का तख्ता पलटा
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शरीफ खुद मोमिन-उल-मुल्क बनना चाहते थे, लेकिन
जनरल परवेज मुशर्रफ़ ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। शरीफ ने जिस मुशर्रफ को सेना प्रमुख बनवाया था, उसी मुशर्रफ ने उनका तख्ता पलट दिया। मुशर्रफ़ ने खैर किसी तरह गद्दी छोड़ी तो सत्ता की मलाई के लिए अब ज़रदारी और गिलानी में कांव-कांव मची है। हालांकि खुद सेना का यही कहना है कि उसने पाकिस्तानी राजनीतिक में अपनी भूमिका कम की है, लेकिन कयानी, जिनके बारे में ये कहा जाता है कि वो मुशर्रफ से चार कदम आगे की सोचते हैं, क्या सत्ता पर काबिज होने का मौका छोड़ देंगे? तवारीख गवाह है कि पाकिस्तान में फौज को सत्ता हथियाने का मौका सियासतदानों ने ही मुहैया कराया है। इस बार भी हालात इतिहास के दुहराव की ओर इशारा कर रहे हैं। एक बात और, कयानी पहले ही घोषित कर चुके हैं कि उनकी नीतियां इंडिया-सेंट्रिक यानी भारत-केंद्रित हैं। पहले के सेना प्रमुखों की तरह वो भी भारत को दुश्मन नंबर एक मानते हैं। ऐसे में अगर जरदारी का तख्ता पलटकर वो सत्ता में आए तो ये भारत के लिए भी कोई अच्छी खबर नहीं होगी।

गुरुवार, मार्च 18, 2010

माला की माया!

भई माला हो तो ऐसी। जितनी चर्चा नेता की, उससे ज्यादा माला की। वाकई ये माला की ही माया है। ...तो क्या हुआ कि मायावती ने हज़ार रुपये के नोटों की माला पहन ली। माना कि ये माला ज़रा भारी भरकम थी, इसे तैयार करने में नोट भी थोड़ा ज्यादा लगे होंगे। लेकिन इस बात को लेकर बवाल मचाना भला कहां की इंसानियत है।
बहनजी के विरोधी बताएं कि क्या देश में नेताओं के तुलादान का चलन नहीं है?
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माया की माया : लखनऊ में 15 मार्च को बीएसपी की रैली में मायावती को एक हज़ार रुपये के नोटों की माला पहनाई गई।
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अगर नेताओं को तराजू पर बैठाकर सिक्कों से तोला जा सकता है तो नोटों की माला क्यों नहीं पहनाई जा सकती? वैसे मुझे लगता है कि 15 मार्च को लखनऊ में हुई महारैली में बीएसपी कार्यकर्ताओं ने मायावती को भी सिक्कों से तोलने की ही योजना बनाई होगी। लेकिन बाद में उन्हें रुपये के अवमूल्यन का खयाल आया होगा। अब ये भी भला बताने की जरूरत है कि रुपये का भाव इस कदर गिर चुका है कि सिक्कों को भिखारी भी नहीं पूछते। ज़रा सोचिए, जब ये बात उनके ध्यान में आई होगी तो कांग्रेस की अर्थनीति पर उनकी खोपड़ी कितनी भन्नाई होगी। कार्यकर्ताओं ने अपने गुस्से पर काबू पाने और तुलादान की जगह कोई और तरीका तलाशने के लिए न जाने पान के कितने बीड़ों और गुटखे के कितने पाउचों का सहारा लिया होगा। तब कहीं जाकर उन्हें बहनजी को उनके वजन (शारीरिक नहीं, राजनीतिक) के मुताबिक नोटों की माला पहनाने का खयाल आया होगा। माया की माला पर शोर मचाने वालों को सोचना चाहिए कि इस मामले में दोषी तो वित्त मंत्री और उनकी आर्थिक नीति है। न रुपये का भाव गिरता, न माया नोटों की माला पहनतीं।
माया ने नोटों की माला पहन कर फूलों की हिफाजत का भी संदेश दिया है। ये सीधी सी बात न जाने क्यों बीएसपी के विरोधियों की खोपड़ी में नहीं घुसती। माया को जो माला पहनाई गई, अगर वो फूलों से बनाई जाती तो न जाने कितने पौधे जुल्म का शिकार होते। पौधों पर होने वाले जुल्म का असर पर्यावरण पर पड़ता तो ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती का तापमान बढ़ता और न जाने कितने ग्लेशियर पिघल जाते। ऐसे में सागर किनारे के कई शहरों के जल समाधि लेने का खतरा पैदा हो जाता। तो भाइयो, मायावती ने नोटों की माला पहन कर देश को ही नहीं, पूरी दुनिया को अपने अहसान से लाद लिया है।
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दुनिया मेरी जेब में : माया ने 17 मार्च को भी नोटों की माला पहनी।
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चलते-चलते एक बात और। माया ने ये भी साबित कर दिया है कि उन्हें अपने समर्थकों की पसंद-नापसंद का पूरा खयाल है। 15 मार्च को लखनऊ में पार्टी की महारैली में उन्होंने एक हज़ार रुपये के नोटों की माला पहनी थी। ये माला रंगीन तो थी, लेकिन रंग-बिरंगी नहीं थी। लगता है बहनजी के समर्थकों में से किसी ने जरूर इस बात की तरफ उनका ध्यान खींचा होगा। तभी तो 17 मार्च को हुए पार्टी के कार्यक्रम में उन्होंने जो माला पहनी, उसमें हर रंग के नोट लगे थे और माला एकदम चकाचक रंगीन दिख रही थी। ये रंग उनके कार्यकर्ताओं को इस क़दर पसंद आए कि पार्टी ने ऐलान कर दिया है कि वो आगे भी माया को माला पहनाने का सिलसिला जारी रखेगी।

मंगलवार, मार्च 16, 2010

सियासत की जमीन, विरासत का बिरवा


देश में बहुत पहले सियासत की जमीन पर विरासत का बिरवा रोपा गया था। उस वक्त नन्हा सा दिखने वाले इस पौधे की जड़ों ने जमीन के भीतर ही भीतर तमाम दलों को छूत की बीमारी लगा दी। और अब देश की राजनीतिक व्यवस्था पर वारिसों का ही वर्चस्व नज़र आता है।
सियासत की जमीन पर विरासत की फसल उगाने का सिलसिला शुरू किया कांग्रेस ने। पंडित जवाहर लाल नेहरू का कद इतना बड़ा है कि उनकी निष्पक्षता और ईमानदारी पर सवालिया निशान लगाना कम से कम मेरे जैसे कम समझ-बूझ वाले इंसान के लिए जायज़ नहीं होगा, लेकिन कहने वाले कहते हैं कि उन्होंने इंदिरा को अपने राजनीतिक वारिस के के रूप में प्रोजेक्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यही वजह है कि नेहरू और लालबहादुर के बाद कांग्रेस के तमाम नेताओं ने जब इंदिरा में आस्था जताई तो किसी को हैरत नहीं हुई।
इंदिरा अपनी विरासत बेटे संजय को सौंपने वाली थीं, कि संजय की मौत हो गई और बाद में इंदिरा की भी हत्या कर दी गई। इसके बाद कांग्रेस के दिग्गजों ने राजीव गांधी को नेता मान लिया। राजीव की हत्या के बाद उनकी पत्नी सोनिया गांधी कई साल तक सक्रिय राजनीति से दूर रहीं, लेकिन नेहरू गांधी परिवार के बरगदी साये के बिना कांग्रेस के नेता ही खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे। उन्होंने सोनिया के पांव पकड़ कर उन्हें पार्टी की कमान सौंप दी। और अब गांधी परिवार के चश्मोचिराग राहुल को पार्टी की कमान सौंपने की तैयारी की जा रही पार्टी के बुजुर्ग नेताओं की जुबान से राहुल के नाम से पहले निकलने वाला ‘माननीय’ शब्द बता देता है कि आगे क्या होने वाला है।
कांग्रेस के ऊपर वंशवाद का आरोप लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी को न जाने क्यों राजमाता विजया राजे सिंधिया की बेटियों वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे के नाम याद नहीं आते।
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पीलीभीत से मेनका गांधी के बेटे वरुण को और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन को टिकट दिया। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में ही बीजेपी ने गोपीनाथ मुंडे की बेटी-दामाद को भी टिकट दिया। ये हकीकत है उस दल की जो खुद को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ कहती है।
राजनीतिक वंशवाद की लकीर पर चलने वालों में देश की लगभग तमाम पार्टियां शामिल हैं। एक समय में नेहरू और और इंदिरा के करीबी रह चुके बीजू पटनायक के बेटे नवीन पटनायक उड़ीसा में बहुत पहले पिता की गद्दी संभाल ही चुके हैं।
जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के बाद सत्ता की कमान उनके बेटे फारुक अब्दुल्ला को मिली और अब फारुक के बेटे उमर अब्दुल्ला सूबे के मुख्यमंत्री हैं।
यूपी की बात करें तो समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव ने हालांकि अभी अध्यक्ष का पद छोड़ने का मन नहीं बनाया है, लेकिन ये साफ हो चुका है कि वो अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटे अखिलेश यादव को ही सौंपेंगे।
अकाली दल नेता और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल भी अपनी विरासत बेटे सुखवीर बादल को ही सौंपने की तैयारी में हैं। सहयोगी पार्टी बीजेपी के ऐतराज को दरकिनार कर उन्होंने जिस तरह सुखवीर को डिप्टी सीएम बनवाया, वो उनके इरादे जाहिर कर देता है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करूणानिधि के बेटे स्टालिन भी पिता की गद्दी संभालने को तैयार हैं।
महाराष्ट्र में बाल ठाकरे ने अपनी विरासत बेटे उद्धव को सौंपी तो भतीजे राज ठाकरे ने बगावत कर दी और चचा ठाकरे के आगे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी। लेकिन चचा का फैसला नहीं बदला। शिव सेना ने इसकी कीमत महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में महाराष्ट्र नविनर्माण सेना के हाथों चोट खाकर चुकाई है।
वंशवाद की अमर बेल का सहारा लेने वालों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि तमाम नामों का जिक्र करने के लिए महाग्रंथ लिखना होगा। क्योंकि जब आप दिमाग के घोड़े दौड़ाएंगे तो ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवड़ा, सुप्रिया सुले जैसे नाम भी तो याद आएंगे।