बुधवार, मार्च 24, 2010

पाकिस्तान : तख़्तापलट की तैयारी!

पाकिस्तान में जम्हूरियत एक बार फिर ख़तरे में दिख रही है। डर है कि इतिहास दुहराते हुए फौजी बूट उसे कहीं फिर न कुचल डाले। पाकिस्तान में इन दिनों सत्ता निर्वाचित सरकार के हाथों में है। लेकिन सरकार चला रही हैं
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कयानी : बढ़ रहा है क़द
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कठपुतलियां, जिनकी डोर सेना प्रमुख अशफ़ाक परवेज़ कयानी के हाथों में है। बताते हैं कि राष्ट्रपति ज़रदारी जिन फैसलों पर मुहर लगाते हैं, वो फैसले कयानी की कलम से निकलते हैं। पाकिस्तान के जो मौजूदा हालात हैं, उनमें फैसले लिखने वाला हाथ, अगर मुहर भी अपने नाम की ही लगाना शुरू कर दे, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। सत्ता में कयानी की दखलंदाजी किस तरह बढ़ चुकी है ये इस बात से जाहिर हो जाता है कि उन्होंने 16 मार्च को रावलपिंडी के सेना मुख्यालय में मुल्क के टॉप ब्यूरोक्रेट्स की बैठक ली। पाकिस्तान के इतिहास में ये पहला मौका है, जब किसी निर्वाचित सरकार के सत्ता में रहते ऐसा हुआ हो।
थोड़ा और पीछे लौटते हैं। दो साल पहले हुए मुंबई हमलों के बाद जरदारी ने पाकिस्तान का पक्ष रखने के लिए आईएसआई के मुखिया शूजा पाशा को भारत भेजने की पेशकश की थी। लेकिन कयानी ने विरोध किया और जरदारी को फैसला वापस लेना पड़ा। इसके अलावा मुंबई हमले के बाद जब भारत ने जब विदेश सचिव स्तर की बातचीत की पेशकश की तो पाकिस्तान ने रज़ामंदी देने में लंबा वक्त लिया। बताया जाता है कि जरदारी इसके लिए कयानी की मंजूरी का इंतज़ार कर रहे थे। कयानी ने मंजूरी देने में वक्त लगाया, इसलिए जरदारी की हरी झंडी भी देर से हिली।
चुप रहकर चार कदम आगे की सोचने वाले जनरल के तौर पर मशहूर कयानी शुरू में राजनीति से दूर
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ज़रदारी-गिलानी : किचकिच में उलझे
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थे। लेकिन राष्ट्रपति आसिफ जरदारी और प्रधानमंत्री यूसुफ रज़ा गिलानी की किचकिच ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि वो हाशिये से खुद ब खुद सेंट्रल प्वाइंट में पहुंच गए। और अब हालत ये है कि देश के तमाम अहम फैसले कयानी ले रहे हैं। कयानी की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान पहुंचने वाले विदेशी राजनेता भी उनसे मिले बिना नहीं लौटते।
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अमेरिका को भी कयानी से ही उम्मीद
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अमेरिका भी अब पाकिस्तान में कयानी को ही पावर सेंटर मान कर चल रहा है। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन पिछले दिनों जब पाकिस्तान गईं, तो उन्होंने जितना वक्त राजनेताओं के साथ गुज़ारा, उससे ज्यादा समय कयानी के साथ बिताया। कयानी पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी के साथ अमेरिका गए तो ओबामा प्रशासन उनकी खातिरदारी में कुछ ऐसा जुटा कि उसे प्रोटोकॉल की भी परवाह नहीं रही। दरअसल अमेरिका तालिबान के ख़िलाफ़ मुहिम को लेकर ज़रदारी-गिलानी से नाउम्मीद हो चुका है। उसे अब कयानी से ही उम्मीद नज़र आ रही है। पाकिस्तान में हालात कुछ ऐसे हैं कि सत्ता का समीकरण जनरल के पक्ष में हो गया है। हालांकि ये पहली बार नहीं हुआ है। वहां सत्ता पर
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अयूब खां, याहिया खां, जिया उल हक़ : बंदूक के दम पर सत्ता हथियाई
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फौज के वर्चस्व और सियासी आका से बेवफाई की रवायत रही है। आखिरी गवर्नर जनरल और पहले राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा से लेकर नवाज शरीफ तक की बात करें तो अब तक पाकिस्तान में चार बार तख्ता पलट हो चुका है। इस्कंदर मिर्जा ने सन् 1956 में सत्ता संभालने के चंद महीने बाद ही कंस्टीट्यूशन को सस्पेंड कर सरकार बर्खास्त कर दी और जनरल अयूब ख़ां को मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बना दिया था। लेकिन अयूब ख़ां ने उन्हें सत्ता से बाहर कर दिया और खुद को फील्ड मार्शल घोषित कर दिया। अयूब खान ने सन् 1958 से 1968 तक पाकिस्तान पर हुकूमत की और फिर यहिया ख़ान को गद्दी सौंप दी।
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ज़ुल्फिकार अली भुट्टो : जिया उल हक़ पर भरोसा पड़ा भारी
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1970 में हुए आम चुनाव में तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान ने जीत हासिल की। लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो को मुजीब के साथ सत्ता में भागीदारी मंजूर नहीं थी। भुट्टो ने मुजीब को नज़रबंद कराके पूर्वी पाकिस्तान में क़त्लेआम शुरू करा दिया। नतीजा ये हुआ कि 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान टूट गया और बांग्लादेश का जन्म हुआ। हारे-टूटे पाकिस्तान में ताजपोशी के बाद भुट्टो ने जिया उल हक़ को सेनाध्यक्ष बनवा दिया। पाकिस्तान में 1977 में हुए चुनाव में भुट्टो पर हेरा-फेरी का आरोप लगा तो भुट्टो ने विरोधियों को सलाखों के पीछे डाल दिया। इससे जनता का गुस्सा फूटा और पूरे देश में बवाल शुरू हो गया। मौक़ा देख कर जिया उल हक़ ख़ुद मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर बन गए और भुट्टो को फांसी पर लटका दिया।
सन् 1988 में विमान हादसे में जिया उल हक़ की मौत के बाद हुए चुनाव में ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की बेटी बेनज़ीर पीएम बनीं। वो किसी इस्लामी देश की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। इसके बाद अगले 11 साल तक बेनजीर और नवाज शरीफ में सत्ता की खींचतान चलती रही। दो बार बेनजीर प्रधानमंत्री बनीं तो दो बार कुर्सी नवाज शरीफ के हिस्से में आई। नवाज
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परवेज मुशर्रफ : नवाज शरीफ का तख्ता पलटा
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शरीफ खुद मोमिन-उल-मुल्क बनना चाहते थे, लेकिन
जनरल परवेज मुशर्रफ़ ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। शरीफ ने जिस मुशर्रफ को सेना प्रमुख बनवाया था, उसी मुशर्रफ ने उनका तख्ता पलट दिया। मुशर्रफ़ ने खैर किसी तरह गद्दी छोड़ी तो सत्ता की मलाई के लिए अब ज़रदारी और गिलानी में कांव-कांव मची है। हालांकि खुद सेना का यही कहना है कि उसने पाकिस्तानी राजनीतिक में अपनी भूमिका कम की है, लेकिन कयानी, जिनके बारे में ये कहा जाता है कि वो मुशर्रफ से चार कदम आगे की सोचते हैं, क्या सत्ता पर काबिज होने का मौका छोड़ देंगे? तवारीख गवाह है कि पाकिस्तान में फौज को सत्ता हथियाने का मौका सियासतदानों ने ही मुहैया कराया है। इस बार भी हालात इतिहास के दुहराव की ओर इशारा कर रहे हैं। एक बात और, कयानी पहले ही घोषित कर चुके हैं कि उनकी नीतियां इंडिया-सेंट्रिक यानी भारत-केंद्रित हैं। पहले के सेना प्रमुखों की तरह वो भी भारत को दुश्मन नंबर एक मानते हैं। ऐसे में अगर जरदारी का तख्ता पलटकर वो सत्ता में आए तो ये भारत के लिए भी कोई अच्छी खबर नहीं होगी।