गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

ये ख़ंजर किसका है?

ये किसका है ख़ंजर, ये ख़ंजर से पूछो,
ये तेरा नहीं है, ये मेरा नहीं है।

ये मुकुल की ग़ज़ल का सिर्फ शेर नहीं, लहूलुहान शहर हैदराबाद की हक़ीक़त है। सनक के हर मौके की तरह इस बार भी ख़ून बहाने वाले ख़ंजर, ज़ख़्म खाने वालों के नहीं हैं।
दो गुट। एक का रंग हरा, दूसरे का भगवा। एक के हाथों में छुरे, दूसरे के हाथों में ख़ंजर। हरे और भगवे की जंग में इंसान का सीना चाक हो गया। ज़ख़्म लगाने वाले अब गलियों में गुम हैं। बेसुराग हैं। और हर बार की तरह उनींदी आंखों वाले हुक्मरानों ने कह दिया है कि फिक्र की बात नहीं, बलवाइयों को पकड़ लिया जाएगा।
गलियों में अब बूटों की धमक गूंज रही है और शहर, अपने ज़ख़्म चाट रहा है। समय का मरहम लगेगा तो घाव भर भी जाएंगे, लेकिन ज़ख़्मों के निशान शायद न मिट सकें। शहर की रंगत कह रही है कि अब यहां रुकैया और रुक्मिणी नज़रें मिलाते झिझकेंगी। कन्हैया अब कमरुद्दीन से ठिठोली करने की हिम्मत नहीं कर सकेगा।
नई है रवायत या डर हादसों का,
यहां कोई भी शख्स हंसता नहीं है।

वैसे हैदराबाद में जो कुछ हुआ, क्या वो अचानक हो गया? शहर के बाशिंदे बताते हैं कि इस बार महीने भर पहले जब ईद-उल-नबी मनाया गया तो हरा रंग कुछ ज्यादा ही गहरा था। इतना गहरा, कि जितना पहले कभी होता नहीं था। वो जोश था, जो पहले नहीं दिखता था। और जब हनुमान जयंती मनाई जाने लगी तो भगवा रंग भी लहक रहा था। ज़ाहिर है, शहर को बदरंग
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हैदराबाद में दंगाइयों ने सड़कों पर खूनी खेल खेला
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करने के लिए दोनों रंग पहले से ही तैयार बैठे थे। सवाल ये है कि ये क्यूं हुआ? इस सवाल का जवाब शहर की बेरौनक गलियों से उठती फुसफुसाहटें देती हैं। कानों तक पहुंचने वाली आवाज़ें बताती हैं कि ये काम सियासतदां नाम की कौम का है। ये चाहते थे कि अलग सूबे की मांग का शोर दब जाए। इसके लिए एक बड़े शोर की ज़रूरत थी, सो दंगा करवाना पड़ा।
अब जो गद्दीनशीन हैं, वो अपोज़िशन को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। अपोजिशन हुकूमत पर इल्जाम लगा रहा है और आम आदमी अमन की लाशें गिन रहा है।

रविवार, मार्च 28, 2010

किसे धोखा दे रहे हैं हुसैन?

मकबूल फिदा हुसैन को कतर बड़ा रास आ रहा है। वो वहां के गुण गाते नहीं अघा रहे। वो कहते हैं
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मकबूल फिदा हुसैन : मुगालते में हैं या दूसरों को धोखा दे रहे हैं?
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‘कतर में मैं पूरी आज़ादी का लुत्फ़ उठा रहा हूं। अब कतर ही मेरा घर है। यहां मेरी अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कोई पाबंदी नहीं है। यहां मैं बहुत खुश हूं।’ जनाब हुसैन साहब, या तो आप मुगालते में हैं, या दूसरों को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं। अगर मेरी बात पर यकीन नहीं है तो ज़रा उठाइए अपनी कूची और बना दीजिए अल्लाह की तस्वीर। फिर देखिए, क्या होता है। जिस मुल्क की तारीफ करते आपकी जुबान नहीं थक रही है, वहां कब्र भी नसीब नहीं होगी। टुकड़े कर के समुंदर में डाल दिए जाएंगे आप। भारत में रह कर तो आपने दुर्गा, लक्ष्मी और भारत माता की अश्लील तस्वीरें खूब बनाईं। आपने ये तस्वीरें बनाई ही नहीं, इन्हें जस्टिफाई भी किया। दलील ये दी, कि नग्नता में ही कला शुद्ध रूप में उभर कर आती है। हुसैन साहब, हम भी आपके हमवतन थे (अब तो ख़ैर आप अमीर को प्यारे हो चुके हैं।), इसी नाते एक सलाह देते हैं कि कतर में बैठकर कला के शुद्ध रूप की तलाश न कीजिएगा। वहां बैठकर कहीं आपने पैगम्बर साहब की बेटी फातिमा की नंगी तस्वीर बना दी, तो ग़ज़ब हो जाएगा। जो लोग आज आपके हाथ चूम रहे हैं, वही आपके
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कला या कलंक : हुसैन ने सरस्वती की अर्द्धनग्न तस्वीर बनाई
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हाथ काट लेंगे।
हालांकि हम ये भी जानते हैं कि हुसैन साहब कि आपके साथ इस तरह का कोई वाकया पेश नहीं आने वाला। क्योंकि आपने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर तमाम प्रयोग हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीरों के साथ ही किए हैं। किसी और मजहब के बारे में आप सोच भी नहीं सकते। इस्लाम के बारे में तो कतई नहीं। ये सिर्फ हम ही नहीं कह रहे, मशहूर तरक्कीपसंद लेखिका तस्लीमा नसरीन भी आपके बारे में यही सोचती हैं। तस्लीमा ने जनसत्ता में 28 फरवरी को एक लेख लिखा, उसका एक अंश देखिए - ‘मैने मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को हर जगह से खोजकर देखने की कोशिश की कि हिन्दू धर्म के अलावा
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तस्लीमा नसरीन ने हुसैन की बखिया उधेड़ी
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किसी और धर्म, खासकर अपने धर्म इस्लाम को लेकर उन्होंने कोई व्यंग्य किया है या नहीं। लेकिन देखा कि बिल्कुल नहीं किया है। बल्कि वे कैनवास पर अरबी में शब्दशः अल्लाह लिखते हैं। मैंने यह भी स्पष्ट रूप से देखा कि उनमें इस्लाम के प्रति अगाध श्रद्धा और विश्वास है। इस्लाम के अलावा किसी दूसरे धर्म में वे विश्वास नहीं करते। हिंदुत्व के प्रति अविश्वास के चलते ही उन्होंने लक्ष्मी और सरस्वती को नंगा चित्रित किया है। क्या वे मोहम्मद को नंगा चित्रित कर सकते है। मुझे यकीन है, नहीं कर सकते।’
हुसैन साहब, मलयालम दैनिक ‘माध्यमम’ को दिए गए इंटरव्यू में आपने कहा, ‘भारत मेरी मातृभूभि है’। आप भारत को मां भी बोलते हैं और अपनी इस मां की नंगी तस्वीर भी बनाते हैं। आप अपनी मां के कैसे सपूत हैं? आप कहते हैं कि आपको तो भारत से बहुत
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वाह रे सपूत : हुसैन ने भारत को मां भी कहा, अश्लील तस्वीर भी बनाई
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प्यार है, लेकिन भारत को ही अब आपकी ज़रूरत नहीं है। अब मियां आप 94 साल के हो चुके हैं। पांव आपके कब्र में लटक रहे हैं। ये वो उम्र होती है, जब लोग अल्लाह का नाम लेते हैं, नाती-पोतों को सच बोलने की नसीहत देते हैं, लेकिन आप हैं कि सरेआम झूठ बोल रहे हैं। हुसैन साहब, याद रखिए, आपको भारत से निकाला नहीं गया। आप हिंदुस्तान को ठोकर मार कर चले गए। यहां रह कर आपने देवियों की नंगी तस्वीरें बनाईं। आप इसके जरिये दौलत में बदलने वाली शोहरत कमाना चाहते थे। मक़सद पूरा हो गया, तो वतन को अंगूठा दिखाकर कतर निकल लिए। आपकी तस्वीरों के खरीदार भी तो मोटी जेब वाले शेख ही हैं। सो तिजारत के लिए उससे बेहतर जगह क्या होगी। तस्वीरें खरीदारों के मुआफिक, पैसा आपके मुआफिक।
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भावनाओं से खिलवाड़ : हुसैन ने देवी दुर्गा की अश्लील तस्वीर बनाई
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भारत में आपके विरोधियों ने क्या किया? आपके खिलाफ कानून का सहारा ही तो लिया। आपके खिलाफ अदालत में मुकदमा ही तो किया। हुसैन साहब, अगर आपमें दम था तो आप अदालत में पेश होकर आरोपों का जवाब देते। अगर आपको लगता था कि आप सही हैं, तो अदालत में तर्क रखते। लेकिन आपमें नैतिक बल नहीं था। इसीलिए बुजदिलों की तरह भाग निकले। हुसैन साहब, आपने अपनी सफाई में कहा कि कला के जरिए किसी की भावना को ठेस पहुंचाने की आपकी नीयत कभी नहीं थी। आपने कला के जरिये सिर्फ अपनी रचनात्मकता जाहिर की है। तो जनाब, कलाकार को ही क्यों, हम तो कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सबको होनी चाहिए। लेकिन
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पार्वती की इस तस्वीर को कैसे जायज़ ठहराएंगे हुसैन साहब?
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एक बात बताएं, क्या आपको अल्पसंख्यक समुदाय का हिस्सा होने के चलते ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक के ग़लत इस्तेमाल की इजाज़त दे दी जानी चाहिए? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सिर्फ हिंदू देवियों की अश्लील तस्वीरों से ही साबित होती है?जनाब अश्लील तस्वीरों के चलते जिस वक्त आपका विरोध हो रहा था, उस वक्त बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका आपके साथ था। इनमें हिंदू, मुसलमान, सिख, इसाई सब शामिल थे। आपकी तमाम कारगुज़ारियों के बाद भी ये आपके समर्थन में सड़कों पर उतरे। याद रखिये कि ये सिर्फ हिंदुस्तान में ही संभव है। यहां अब भी बुद्धिजीवियों का एक तबका आपकी कारगुज़ारियों पर परदा डालने को तैयार बैठा है। ये कहता है कि भूख, बेकारी पर सोचना आपके बारे में सोचने से ज्यादा जरूरी है। ये अजंता, कोणार्क और खजुराहो का जिक्र करके आपको सही ठहराने की कोशिश करता है। लेकिन इन्हें ये नहीं मालूम कि अजंता, कोणार्क और खजुराहो में सीता, दुर्गा, सरस्वती या भारत माता के नहीं, अप्सराओं और राजकुमारियों के चित्र और मूर्तियां हैं। भूख-बेकारी बेशक बड़े मसले हैं, लेकिन जब दिल पर चोट लगती है तो उस टीस के आगे तमाम मसले बौने नज़र आते हैं।
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अभिव्यक्ति की ये कैसी आज़ादी : गणेश के सिर पर विराजित लक्ष्मी की अश्लील तस्वीर
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हुसैन साहब, इस देश में बहुसंख्यकों को सरेआम ज़लील कीजिए। उनकी भावनाओं से खुलकर खेलिए। इसके खिलाफ अगर किसी ने जुबान खोली तो आप उसे गुंडा भी कह लीजिए। कोई आपको कुछ नहीं कहेगा। इसका अनुभव तो आपको हो ही चुका है, लेकिन अगर आपने अल्पसंख्यकों की भावनाओं से खिलवाड़ की होती, तो आपका बचना मुश्किल होता। उदाहरण के तौर पर दो नमूने पेश हैं। कुछ साल पहले डेनमार्क के एक अखबार ने मुहम्मद साहब का कार्टून छापा था। दिल्ली की एक पत्रिका ने उसे साभार छापा तो पत्रिका के संपादक को जेल भेज दिया गया। दूसरा वाकया, मेघालय में बच्चों की किताब में जीज़स क्राइस्ट की तस्वीर छपी। इसमें ईसा मसीह के एक हाथ में सिगरेट और दूसरे हाथ में बीयर का डब्बा दिखाया गया। इस किताब के प्रकाशक और चित्रकार को आनन-फानन में गिरफ्तार कर लिया गया। हुसैन साहब, हम आपसे पूछते हैं कि क्या इन दोनों मामलों में की गई कार्रवाई ग़लत थी? अगर आप इन्हें सही ठहराते हैं तो फिर आप पर कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए। अगर आप इन्हें गलत ठहराते हैं तो ज़रा पैगम्बर की तस्वीर बना दीजिए।