ये किसका है ख़ंजर, ये ख़ंजर से पूछो,
ये तेरा नहीं है, ये मेरा नहीं है।
ये मुकुल की ग़ज़ल का सिर्फ शेर नहीं, लहूलुहान शहर हैदराबाद की हक़ीक़त है। सनक के हर मौके की तरह इस बार भी ख़ून बहाने वाले ख़ंजर, ज़ख़्म खाने वालों के नहीं हैं।
दो गुट। एक का रंग हरा, दूसरे का भगवा। एक के हाथों में छुरे, दूसरे के हाथों में ख़ंजर। हरे और भगवे की जंग में इंसान का सीना चाक हो गया। ज़ख़्म लगाने वाले अब गलियों में गुम हैं। बेसुराग हैं। और हर बार की तरह उनींदी आंखों वाले हुक्मरानों ने कह दिया है कि फिक्र की बात नहीं, बलवाइयों को पकड़ लिया जाएगा।
गलियों में अब बूटों की धमक गूंज रही है और शहर, अपने ज़ख़्म चाट रहा है। समय का मरहम लगेगा तो घाव भर भी जाएंगे, लेकिन ज़ख़्मों के निशान शायद न मिट सकें। शहर की रंगत कह रही है कि अब यहां रुकैया और रुक्मिणी नज़रें मिलाते झिझकेंगी। कन्हैया अब कमरुद्दीन से ठिठोली करने की हिम्मत नहीं कर सकेगा।
नई है रवायत या डर हादसों का,
यहां कोई भी शख्स हंसता नहीं है।
वैसे हैदराबाद में जो कुछ हुआ, क्या वो अचानक हो गया? शहर के बाशिंदे बताते हैं कि इस बार महीने भर पहले जब ईद-उल-नबी मनाया गया तो हरा रंग कुछ ज्यादा ही गहरा था। इतना गहरा, कि जितना पहले कभी होता नहीं था। वो जोश था, जो पहले नहीं दिखता था। और जब हनुमान जयंती मनाई जाने लगी तो भगवा रंग भी लहक रहा था। ज़ाहिर है, शहर को बदरंग
ये तेरा नहीं है, ये मेरा नहीं है।
ये मुकुल की ग़ज़ल का सिर्फ शेर नहीं, लहूलुहान शहर हैदराबाद की हक़ीक़त है। सनक के हर मौके की तरह इस बार भी ख़ून बहाने वाले ख़ंजर, ज़ख़्म खाने वालों के नहीं हैं।
दो गुट। एक का रंग हरा, दूसरे का भगवा। एक के हाथों में छुरे, दूसरे के हाथों में ख़ंजर। हरे और भगवे की जंग में इंसान का सीना चाक हो गया। ज़ख़्म लगाने वाले अब गलियों में गुम हैं। बेसुराग हैं। और हर बार की तरह उनींदी आंखों वाले हुक्मरानों ने कह दिया है कि फिक्र की बात नहीं, बलवाइयों को पकड़ लिया जाएगा।
गलियों में अब बूटों की धमक गूंज रही है और शहर, अपने ज़ख़्म चाट रहा है। समय का मरहम लगेगा तो घाव भर भी जाएंगे, लेकिन ज़ख़्मों के निशान शायद न मिट सकें। शहर की रंगत कह रही है कि अब यहां रुकैया और रुक्मिणी नज़रें मिलाते झिझकेंगी। कन्हैया अब कमरुद्दीन से ठिठोली करने की हिम्मत नहीं कर सकेगा।
नई है रवायत या डर हादसों का,
यहां कोई भी शख्स हंसता नहीं है।
वैसे हैदराबाद में जो कुछ हुआ, क्या वो अचानक हो गया? शहर के बाशिंदे बताते हैं कि इस बार महीने भर पहले जब ईद-उल-नबी मनाया गया तो हरा रंग कुछ ज्यादा ही गहरा था। इतना गहरा, कि जितना पहले कभी होता नहीं था। वो जोश था, जो पहले नहीं दिखता था। और जब हनुमान जयंती मनाई जाने लगी तो भगवा रंग भी लहक रहा था। ज़ाहिर है, शहर को बदरंग
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हैदराबाद में दंगाइयों ने सड़कों पर खूनी खेल खेला
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करने के लिए दोनों रंग पहले से ही तैयार बैठे थे। सवाल ये है कि ये क्यूं हुआ? इस सवाल का जवाब शहर की बेरौनक गलियों से उठती फुसफुसाहटें देती हैं। कानों तक पहुंचने वाली आवाज़ें बताती हैं कि ये काम सियासतदां नाम की कौम का है। ये चाहते थे कि अलग सूबे की मांग का शोर दब जाए। इसके लिए एक बड़े शोर की ज़रूरत थी, सो दंगा करवाना पड़ा।
अब जो गद्दीनशीन हैं, वो अपोज़िशन को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। अपोजिशन हुकूमत पर इल्जाम लगा रहा है और आम आदमी अमन की लाशें गिन रहा है।
अब जो गद्दीनशीन हैं, वो अपोज़िशन को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। अपोजिशन हुकूमत पर इल्जाम लगा रहा है और आम आदमी अमन की लाशें गिन रहा है।