शनिवार, मार्च 13, 2010

हारे तो हैरत क्यों?

मठाधीशों ने मार डाला। जी हां, हॉकी की हालत बयान करने के लिए मेरे पास फिलहाल इससे बेहतर अल्फाज़ नहीं हैं।
विश्वकप मुकाबले में भारतीय टीम ने अपने पहले मुकाबले में जब पाकिस्तान को पीटा तो एक उम्मीद जगी थी। लेकिन बाद के मुकाबलों में वो दस्तूर के मुताबीक मुंह के बल गिरती रही। भारत ने वर्ल्ड कप में छह मैच खेले, जिनमें से एक में जीत मिली, एक ड्रॉ हुआ और चार मुकाबलों में हमारी बुरी तरह हार हुई।
सवाल ये है कि इस नाकामी के बाद भला हॉकी को कोई दिल कैसे दे सकता है? जो रुतबा क्रिकेट को हासिल है, वो हॉकी को कैसे हासिल हो सकता है? सवाल सौ फीसदी सही हैं। ये सवाल उठने ही चाहिए। लेकिन इनके साथ ही एक सवाल ये भी उठना चाहिए कि हॉकी की इस बदहाली के लिए जिम्मेदार कौन है?
जनवरी में भारतीय हॉकी ने जो कुछ देखा, उसकी ज़रा भी याद बाकी हो, तो इस सवाल का जवाब तलाशना मुश्किल नहीं। खिलाड़ियों की ओर से भत्तों की मांग उठने पर हॉकी इंडिया ने जिस तरह की बेशर्मी दिखाई, उसकी मिसाल मुश्किल है। खैर जब चारों ओर से थू-थू हुई तो हॉकी इंडिया को थोड़ी शर्म आई। लेकिन इसके बाद उसने जो कुछ किया वो और भी शर्मिंदा करने वाला था। स्पॉन्सर सहारा इंडिया से तकरीबन सवा दो करोड़ रुपये ले चुके हॉकी इंडिया ने हर खिलाड़ी को सिर्फ पच्चीस हज़ार रुपये देने की पेशकश की। खैर, मसला सुलझाने के लिए सहारा इंडिया ने खिलाड़ियों के लिए फिर से एक करोड़ रुपये देने का ऐलान किया। उसने ये रकम सीधा खिलाड़ियों के खाते में जमा कराई। इससे मामला भले ही सुलझ गया, लेकिन खिलाड़ी पैसे के पंगे ने खिलाड़ियों का आत्मबल छीन लिया था। ऐसे में आप जीत की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। टीम हारी है तो दस्तूर के मुताबिक हार के कारणों की पड़ताल होगी। दो-चार खिलाड़ियों को हो सकता है दाएं-बाएं कर दिया जाए, कोच से जवाब तलब किया जाए, लेकिन क्या हॉकी के मठाधीशों से भी कोई जवाब मांगा जाएगा?
भारत में हॉकी की दुनिया ग्लैमर और धन की बरसात से कोसों दूर है। ज्यादातर खिलाड़ियों के पास अच्छी नौकरी नहीं है। उन्हें खेलने के लिए लाखों रुपए भी नहीं दिए जाते। ऐसे में क्या वो बेहतर ट्रीटमेंट की उम्मीद भी नहीं कर सकते? भारतीय हॉकी में समस्याओं की जड़ बहुत गहरी है और इसे केवल अच्छे विदेशी कोच लाकर दूर नहीं किया जा सकता।

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